कहते हैं कि ‘उम्मीद’ पे दुनिया कायम हैं,
इसलिए है उम्मीद तुझसे ही मेरी, कि जैसे है,
सृष्टि को नियम से,
नियम को परिश्रम से,
तपिश को ठंडक से,
रेगिस्तान को हरियाली से,
क्षुधा को खुराक की,
तृषा को जल से ,
लहर को किनारेसे,
निराशा को है आशा से,
धरती को सूरज से,
अग्नि को वायु से,
इंसान को इंसानियत से,
आत्मा को परमात्मा से,
और रिश्तों को ‘विश्वास’ की है उम्मीद !
यह रिश्ता टूट न जाये कभी,
बंधी रहे डोर पंचतत्व की इस जीवन से,
चलता रहे कारवां जिंदगी का यूँही,
यही सोचकर,
आज,
फिर ‘उम्मीद’ के ‘बादल’ घिर आये है,
और छायी है ‘घटा’ ‘विश्वास’ की,
लुटा दे हम पर तेरी ‘दया’ का ‘सागर’,
……… बरस जा अब तो !
(This poem was earlier posted on nai-aash.in and somehow it missed here, so re-blogged today with a hope that all these prayers reach to the God and he showers his blessing on us – on all of us)