बाज़ार, व्यापार और गणतंत्र !

हम एक ‘गणतंत्र’ है
हमारा ‘अपना’ एक ‘मंत्र’ है,
हमारी अपनी ‘संस्थाओं’ के प्रति
हमारी ‘बेरूखी’ ‘अनोखी’ है,
इसीलिए देश में जो कुछ होता है
उसमे ‘अपने बाप का क्या जाता है’
‘होने दो जो होता है’
‘कौन किसके लिए रोता हैं’
‘यार सब चलता हैं’…

‘आबादी’ बढती है
‘नए शहर’ ‘पैदा’ होते हैं
‘ज़मीन’ के भाव कुलांचे मारते है
‘कंक्रीट-जंगल’ के दलाल खुश होते है,
‘रंग-बिरंगी’ सपने और
‘खोखली-जगमगाहट’ के ‘काम्प्लेक्स’ में
‘पर्यावरण’ और ‘प्रदुषण’ जैसे मुद्दे
‘फाइलों’ कि तरह गायब हो जाते है,
‘राजनीति’ इसीको ‘विकास’ कहती है

पर ‘कुदरत’ कहाँ
‘भेद’ करती है,
‘आपदा’ आती है
‘शहर’ डूब जाते हैं
‘इंसानियत’ ढूँढने से नहीं मिलती और
‘नीति-मूल्यों’ कि रूहें कांपती है,
‘लाचारी’ कों ‘बाज़ार’ निगलता है
रोते-बिलखते ‘मासूम’ ‘बिसात’ पर है
‘जिंदगी’ दम तोड़ रही है,
‘शेयर-बाजार’ में ‘सूचकांक’ बढ़ रहा है …