विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष – कहाँ पे जाये कचरा … !!

(आज विश्व पर्यावरण दिवस के साथ साथ हम इस ब्लॉग की सातवीं सालगिरह भी मना रहे है.
इस अवसर पर इस ब्लॉग के संस्थापक सदस्य मेरे मित्र श्री. आशीष तिलक तथा श्री. भरत भाई भट्ट को, और आप सभी पाठकों, मित्रों को ढेरों शुभकामनाएं )

हम लोग कितना कचरा निर्माण कर रहे है, इसका अंदाजा भी शायद हम नहीं लगा सकते. लेकिन एक सफाई वाले कि नज़र से देखे और सोचे, तब पता चले कि यह विषय कितना गंभीर है.
मैं इस सम्बन्ध में ‘सांख्यिकी’ या ‘आंकड़ों’ के पचड़े में नह पड़ना चाहता. क्यों कि मैं जानता हूँ कि वास्तविकता कहीं ज्यादा भयंकर है और आंकड़े इस समस्या के समाधान का, या इसमें दिन –ब-दिन जरुरी सुधार का पैमाना नहीं बन सकते और न ही बन पाएंगे.
हजारों लाखों टन कचरा हर रोज हमारे आस-पास परिसर में लाकर ढेर कर दिया जाता है. इस कचरे का फिर क्या होता है? ये कूड़े का ढेर आखिर किस सागर में समाता है ? क्या अलग अलग तरह का कचरा छंटनी किया जाता है? क्या पुनः चक्रित होने वाली चीजों को पुनः प्रयोग करने के लिए प्रकिया में लिया गया है? क्या हर चीज़ को उसकी विशिष्टता के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है/ किया गया है?

क्या प्रदुषण न फैले इसका ध्यान रखा गया है? और सबसे बड़ी बात कही कोई अवशेष बाकि तो नहीं रह गए है. क्या हर वस्तू का उसकी विशिष्टता के आधार पर उचित निरूपण किया गया. जो खतरनाक और घातक रसायन या अपव्यय है उनके निबटारे में क्या जरुरी सावधानी बरती गयी है.

जिंदगी कि भाग दौड़ इतनी तेज हो गयी है कि किसी के पास यह सब सोचने और उस पर मंथन करने का समय ही नहीं मिल पा रहा है.
परिणाम है प्रदुषण – महा भयंकर प्रदुषण, प्रकृति के ऋतू चक्र में बदलाव , वातावरण में परिवर्तन. शायद इसीलिए अब बारिश में वैसी बारिश नहीं होती जैसे हमारे बचपन के दिनों में होती थी. अब तो कभी आधे किलोमीटर परिक्षेत्र में बरसात होती है तो थोडा आगे जाते ही आपको एकदम सुखा भी मिलता है. अब घनघोर वर्षा तो होती है लेकिन लगातार नहीं होती , कई दिनों तक तो होती ही नहीं.
और बीते हुए कुछ वर्षों में ‘जलवायु’ में जो बदलाव देखे गए हैं उससे हम सब अछि तरह वाकिफ है ही , जैसे की – इस साल भीषण गर्मी पड़ी, कई शहरों के तापमान में साल दर साल बढ़ोतरी हो रही है, पिछले साल कहीं भीषण सूखा पड़ा, तो कहीं भीषण बाढ़ आयी, और बारिश औसतन कम रही, जब ज़रूरत थी तो बारिश नहीं आयी, और जब आयी तो बर्बादी लेकर. यह सब घटनाएं पर्यावरण में बदलाव के संकेत है, जिससे हमें सबक लेना चाहिए. और प्रकृति के बचाव के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए.
जो स्वच्छता मुहीम २ अक्तूबर से चलायी गयी, उस पर कहाँ और कितना अमल हुआ इसका भी समय समय पर समीक्षा होनी चाहिए. क्योंकि पिछले कुछ दिनों में मुझे कई बार कार्यवश कुछ बड़े-छोटे शहरों कि यात्रा करनी पड़ी और वहाँ ज्यादातर मैंने पाया कि ‘गन्दगी’ का ‘साम्राज्य’ अभी भी जारी है.
दुःख इस बात पर हुआ कि उन् शहरों के जो प्रमुख सरकारी दफ्तर है जो जिला-स्तरीय कार्यालय है उनके पास तक ‘कूड़े-कचरे’ का ढेर पाया गया और प्रतीत होता था कि वहाँ पर कई कई दिनों तक सफाई हुयी ही नहीं है और होती भी नहीं है.
(कुछ दिन पूर्व अहमदाबाद से वड़ोदरा जाते हुए एक्सप्रेस-हाईवे से पहले अहमदाबाद शहर का कूड़े का ढेर देखने को मिला, जिसको शहर से बाहर इक्कठा कर जलाया जाता है, ये ढेर अपने आप में एक बड़े ‘टीले’ में तब्दील हो गया है और दिन ब दिन इसका स्वरुप्प और विकराल होता जा रहा है.)

तो हमारी ‘अनास्था’ का दौर अभी जारी है. हमारी ‘बेरुखी’ अभी ‘खत्म’नहीं हुयी है !!

और जाहिर है कि केवल किसी एक दिन अगर प्रधानमंत्री हाथ में झाड़ू लेकर सफाई करेंगे और सोचेंगे कि सब कुछ सही होने जा रहा है, तो वैसा नहीं होगा. लोगों को स्वयं ये जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी. और तो और जो लोक प्रतिनिधि है उन्हें तो विशेष प्रयास करने होंगे और उन्हें ये करने भी चाहिए क्योंकि राज्य में या जिले में वे एक ऐसी सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे है, जिसने देश में बदलाव लाने कि बात कही थी, जिसने ‘घिसे-पिटे’ तरीकों से लोगों को ‘निजात’ दिलाने का वायदा किया था (चुनाव से पहले). लेकिन लगता है सरकार नयी नयी योजनाएं शुरू कर और उनका ढिंढोरा पीटकर खुद ‘घिस-पीटकर’ वापस ‘सत्ता’ कि ‘हसीन’ दुनिया में खो जाती है …फिर आज एक टीवी चैनल पर साबरमती नदी में कूड़ा-कचरा फेंकते हुए कुछ लोगों को दिखाया गया और उनसे पूछे गए सवालों का जिस ‘बेशर्मी’ से इन लोगों ने जवाब दिया,  उससे जाहिर होता है की अभी भी हमारे देश और देश के संसाधनों के प्रतिप्रति, पर्यावरण की रक्षा के प्रति और यहाँ तक की हमारे बच्चों के भविष्य के प्रति हम कितने उदासीन और संवेदनहिन् बनते जा रहे है … ऐसे में टनों टन इकठ्ठा हो रहे ‘कचरे’ की परवाह कौन करता है …

‘Dharti Kahe Pukaar Ke’… ‘ जीयो और जीने दो’ !

‘Neela aasmaan’ ‘Dharti’ ‘Saagar’
‘Baadal aur Bijli’
‘Saanjh aur savera’
‘Dhundh’
‘Dhoop Chhaaon’
‘Raat aur Din’
‘Geet gaaya patthharone’
‘Mitti mein Sona’
‘Karishma kudrat ka’
‘Satyam Shivam Sundaram’

‘Nadiya Ke Paar’
‘Himalay se ooncha’
‘Prem Parbat’
‘Door gagan ki chhaaon mein’
‘Hariyali aur Raasta’
‘Jaanwar aur Insaan’
‘Jungle ki pukaar’ ‘Safed haathi’
‘Haathi mere saathi’
‘Ham panchhi ek daal ke’
‘Mamta ki chhaaon mein’
‘Phool khile hain gulshan gulshan’

‘Naya Daur’
‘Naya Zamaana’
‘‘Duniyadaari’

‘Laalach’ ‘Lootmaar’
B’e reham’ ‘Duniya’
‘Zehreela insaan’
‘Gunde’ ‘Lootere’
‘Insaaniyat ke dushman’
‘Shaitaan Mujrim’
‘Kaalaa dhandaa gorey log’
‘Meetha zehar’ ‘Dhan Daulat’
‘Acid Factory’
‘Chimani Ka Dhuaan’
‘Kohram’

‘Garm Hawaa’
‘Kabhi andhera kabhi ujaala’
‘Shor’ ‘Mausam’
‘Bin baadal barsaat’
‘Aag ka dariyaa’
‘Kaalaa samundar’
‘Pighalta Aasmaan’
‘Sehra’ ‘Pyaasi Nadi’
‘Zalzalaa’
‘Bawandar’
‘Aandhi aur toofan’
‘Kaala paani’
‘Ram teri ganga maili’

‘Do beegha zameen’
‘Dharti Maata’
‘Kisaan’ ‘Armaan’
‘Ek mutthi aasmaan’
‘Astitva’
‘Toote khilaune’
‘Pagdandi’
‘Swarg Se Sundar’
‘Ye Gulistaan Hamara’

‘Tere Dwaar Khade Bhagwaan’
‘Dharti Kahe Pukaar Ke’
‘Samaaj ko badal daalo’
‘Mujhe jeene do’
‘Jiyo aur jeene do’

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( In Devnagri Script)

‘नीला आसमान’ ‘धरती’ ‘सागर’
‘बादल और बिजली’
‘सांझ और सवेरा’
‘धुंध’
‘धुप छाँव’
‘रात और दिन’
‘गीत गाया पत्थरोने’
‘मिटटी में सोना’
‘करिश्मा कुदरत का’
‘सत्यम शिवम सुन्दरम’

‘नदिया के पार’
‘हिमालय से ऊंचा’
‘प्रेम परबत’
‘दूर गगन कि छाँव में’
‘हरियाली और रास्ता’
‘जानवर और इंसान’
‘जंगल कि पुकार’ ‘सफ़ेद हाथी’
‘हाथी मेरे साथी’
‘हम पंछी एक ड़ाल के’
‘ममता कि छाँव में’
‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’

‘नया दौर’
‘नया ज़माना’
‘दुनियादारी’

‘लालच’ ‘लूटमार’
‘बे-रहम’’दुनिया’
‘ज़हरिला इंसान’
‘गुंडे’ ‘लूटेरे’
‘इंसानियत के दुश्मन’
‘शैतान मुजरिम’
‘काला धंदा गोरे लोग’
‘मीठा जेहर’ ‘धन दौलत’
‘एसिड फैक्ट्री’
‘चिमनी का धुंआ’
‘कोहराम’

‘गर्म हवा’
‘कभी अँधेरा कभी उजाला’
‘शोर’ ‘मौसम’
‘बिन बादल बरसात’
‘आग का दरिया’
‘काला समुन्दर’
‘पिघलता आसमान’
‘सेहरा’ ‘प्यासी नदी’
‘ज़लज़ला’
‘बवंडर’
‘आंधी और तूफ़ान’
‘काला पानी’
‘राम तेरी गंगा मैली’

‘दो बीघा ज़मीन’
‘धरती माता’
‘किसान’ ‘अरमान’
‘एक मुट्ठी आसमान’
‘अस्तित्व’
‘टूटे खिलौने’
‘पगडण्डी’
‘स्वर्ग से सुन्दर’
‘ये गुलिस्तान हमारा’

‘तेरे द्वार खड़े भगवान’
‘धरती कहे पुकार के’
‘समाज को बदल डालो’
‘मुझे जीने दो’
‘जीयो और जीने दो’

(OUR EARTH – OUR FUTURE, LET US SAVE IT)

जनसंख्या विस्फोट

आज विश्व पर्यावरण दिवस पर जन्मे समाजशिल्पी को ढेर सारी शुभकामनायें…
पर्यावरण प्रदुषण और उससे जुडी सारी समस्याओं का मुख्य कारण जनसँख्यामें हुई वृद्धि है. आज हमने अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए भौतिक सुविधा के साधन जुटा रखे है. पर इसमें हमने प्रकृति के नैसर्गिक तंत्र को खतरा पहुँचाया है. मनुष्य की आबादी बढ़ने के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों की कमी बढती जा रही है. आज हम प्रकृति के कितने करीब है ये याद दिलाने के लिए कुछ प्रश्न लिखे है:

कब यह सब महसूस किया था साथी जीवन में तुमने?
प्यार प्रकृति का पाकर कब जीवन धन्य किया तुमने?

सुबह सवेरे मुर्गे की कब बांग सुनी थी? बचपन में?
चहकती चिड़िया को सुनकर कब महक उठे थे मधुबन में?
बना ही रहता बड़ी देर तक मुह में कड़वापन सारा,
ऐसे बता कब होंठ तले दातुन दबाया था तुमने?

तृप्त हुआ कब चक्की के आटे की वह रोटी खाकर?
या फिर घर के पिछवाड़े की ताज़ी सब्जियाँ बनवाकर?
आज जो कुछ खाया उसको बोते, उगते, बढते देखा?
या फसलों को काटके ले जाते कब देखा था तुमने?

कब देखा था आसमान उस रात निराला – तारों भरा?
या देखा ढलते सूरज को? लहलहाता घास हरा?
चाँद चौदवीं का वह देख के साथ लिए और पहला प्यार
पार चलें इस दुनिया के कब ऐसा सोचा था तुमने?

छैल छबीले यारों के संग उड़ता होली का वह रंग,
या हो दीवाली की खुशियों में जब पुरे परिवारका संग,
कभी अष्टमी, ईद कभी तो, सारे मनाये मिलजुल कर,
कौन सा धर्म है, क्या है जाति, कब ऐसा पूछा तुमने?

आज प्रदुषण फैलाता है, और शांति का भंग करे,
औद्योगिक कचरे फैलाकर, वनसंपति का नाश करे,
और अस्तित्व के संघर्ष में तु नैतिकता को भूल चूका,
जनसंख्या विस्फोट का क्या होगा अंजाम सोचा तुमने?

आज पर्यावरण दिन पर इस जनविस्फोट के प्रदुषण की भौतिक सुविधाओं को तुष्ट के बजाए आबादी को नियंत्रित करने का संकल्प करें और आने वाली पीढ़ी को पर्यावरण की छाया का सुख प्रदान करें.

‘आबोहवा’ बदल गयी हैं ! ( The ‘Climate’ is ‘changing’ )

आसमान के सीने को चीरता हुआ
यह धुंआ उसके फेफड़ों को तड़पा रहा हैं
दम इंसान का घुट रहा हैं
हमारी बढती बेचैनी और
घबराहट कि वजह यही तो नहीं

धरती कि धमनियों मे
मिला दिया किसने
प्रदूषित जल ये
उसकी रक्त शिराओं से
अब विष के झरने फुट रहे

फिजां कि बाहों में
अनगिनत जहरीलें ‘वायु’
आज घुल रहे
के हवा भी ‘रंग बदलने’ लगी हैं

ऋतू चक्र को किसकी नज़र लग गयी
मौसम भी इंसानों कि तरह हो गया हैं
बारिश में अब ‘बरसात’ नहीं होती
और ‘गर्मी’ के दिन
‘आये दिन’ होते हैं

‘कलंकित’ सारा परिमंडल हैं
शोर चारों तरफ हैं
‘विकास’ कि ‘जद्दोजेहद’ में
‘जिंदगी’ दांव पर हैं
‘मशीनी जिंदगी’ में
‘इंसानी’ ‘कल-पुर्जे’ हैं
‘जिंदा’ लाशों के ‘जंगल’ में
अब ‘कुदरत ‘ भी ‘दम ‘ तोड़ रही हैं
देख के ‘इंसान’ कि ‘फितरत’ को
अब ‘मौसम’ बदल रहा हैं
‘मौसम’ अब ‘बदल’ गया है
और
‘आबोहवा’ बदल गयी हैं