एक महीने का समय गुज़र गया . . . . .
कहने का तात्पर्य यह है कि इस ‘ब्लॉग’ पर पिछला लेख ठीक एक महीने पहले १४ अगस्त को प्रकाशित हुआ था.
ऐसा नहीं है कि इस महीने भर में कोई घटना ऐसी नहीं हुयी जिसने ‘समाज-शिल्पी’ को नहीं छुआ हो या ‘आहत’ न किया हो.
और जिस ब्लॉग का उद्देश्य ही समाज कि ‘नव-रचना’ करने में योगदान देना हो, उसे तो हर रोज ही अपने आस-पास कि घटनाओं के बारे में या जिन मुद्दों ने उसे छुआ हो उसके बारे में टिपण्णी ज़रूर करनी चाहिए.
लेकिन कभी कभी लेखन प्रक्रिया में ऐसे पड़ाव आते हैं जब एक रचना से दूसरी रचना के बीच में कुछ अंतर आ जाता है.
अपनी भावनाओं को शब्दों में ढाल कर प्रकाशित नहीं कर पाने का दुःख तो है ही, मगर जो अच्छी-बुरी घटनाएं इस दौर में हुयी, उसने ‘विचारों’ कि प्रक्रिया को जारी रखा और ‘मंथन’ करने पर समय समय पर मजबूर किया.
इस लेख में हम मुख्य रूप से उन् सभी घटनाओंका जिक्र करेंगे, और आनेवाले लेखों में उन्ही मुद्दों का तार पकड़कर विस्तार से चर्चा करेंगे और नए मुद्दों को भी छुएंगे.
सबसे पहले तो बात हमारी बढती ‘संवेदनहीनता’ कि. दिल्ली में फिर हमारे गिरते मानवीय मूल्य और समाज में ‘गहरी पैठ’ बना चुकी ‘नपुंसकता’ का उदाहरण देखने को मिला जहां एक जख्मी को बीच बाजार में लोगों ने पानी नहीं पिलाया और उस इंसान को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
‘बलात्कार’ कि घटनाओं में कोई कमी नहीं आयी और ‘गुंडे-बदमाश’ लगभग हर राज्य में ‘कानून’ कि धज्जियां उड़ाते फिर रहे है.
कुल मिलाकर नयी सरकार को अभी तक तो ‘क़ानून का राज्य’ स्थापित करने में उतनी सफलता नहीं मिली हैं जितनी उम्मीदें जनता को ‘सत्ता परिवर्तन’ के होने बाद इस नयी सरकार से थी.
‘क़ानून व्यवस्था’ के मामले तो लगता है कि जैसे अभी भी ‘युपीए’ का ही शासन चल रहा है.
और तो और जिन अपराधियों कों फांसी कि सज़ा दी जाती है पता नहीं क्यों उनकी फांसी कों बार बार मुल्तवी किया जाता है?
जहाँ प्रधानमंत्री के विदेश दौरों ने हमारे देश कि गरिमा बढ़ाई और यह सन्देश भी जाते दिखा कि हमारा देश भी दूसरे देश से ‘आँख से आँख’ मिलाकर ही चलेगा.
प्रधानमंत्री के जापान दौरे के समय जब ‘स्मार्ट सिटी’ कि बात चली तो नयी आशाएँ जगी, लेकिन जिस रस्ते पर मैं हर रोज सफर करता हूँ उस ‘एन एच – ८ ए एक्सटेंशन’ और एस एच -४६ पर हर रोज बीच सड़क पर बैठा ‘मवेशियों’ का ‘झुंड’ इस बात कि याद दिलाता रहता है कि अभी तो ‘मंजिल’ दूर ही नहीं बहुत बहुत दूर है.
अभी तो राज्य परिवहन कि बस में सफर करते समय जब चालक कों अपनी गाडी बीच सड़क पर बैठे मवेशियों के कारण ‘आडी-तिरछी’ करनी पड़ती है तो लगता है कि देश कि स्थिति भी ऐसी ही है, कहीं बहुत ज्यादा विकास हैं तो कहीं कुछ भी नहीं. और विकास अगर हुआ भी हैं तो उसका समतोल बदलती सामाजिक परिस्थितियों के साथ रखा नहीं गया.
तभी तो वड़ोदरा जैसे शहर में लग-भग हर साल बाढ़ आती है और रिहायशी इलाकों में पानी भर जाता है.
सबसे दुखद त्रासदी ‘जम्मू-कश्मीर’ में आयी बाढ़ है, जहाँ का हाल समाचारों में देख-सुनकर कलेजा मुंह कों आता है.
इस त्रासदी से जहाँ हमारी ‘आपदा प्रबंधन प्रणाली’ कि खामियां सामने आयी, वहीँ ‘विकास’ कि दौड में प्रदुषण के खतरे और उसके दुष्परिणामों कों भांपने में हमारी नाकामयाबी का भी पता चलता है.
हर चीज़ पर ‘बाजारीकरण’ के बढते प्रभाव और पैसे कमाने कि होड में भागती दुनिया का सच हमारे सामने आता है.
विकास कि चकाचौंध में हम मानवीय मूल्य और इंसानी जिंदगी के साथ ही सौदा कर बैठे है. और हम लोगों कि जिंदगी इसीलिए हर समय ‘दांव’ पर है.
वर्षों से चली आ रही हमारी सोच के ‘अपने बाप का क्या जाता है’ , ‘सरकार से हमें क्या लेना देना’, ‘सब चलता है’ ने ही हमें आज इस मकाम पर ला खड़ा किया है, जहाँ ‘प्रशासन’ हमारा ‘अपना’ नहीं बन सका और हम ‘जनता’ प्रशासन के लिए केवल वोट देनेवाली मशीन बन कर रह गए.
जम्मू-कश्मीर कि बाढ़ के कुछ समाचारों में हाल ही में कुछ व्यक्ति प्रधानमंत्री श्री.मोदी जी कों कोसते हुए दिखाए गए. क्या यह सही है?
भाई, इतने सालों से जिन लोगो ने तुम्हारे ऊपर ‘राज’ किया है, कुछ उनसे भी तो पूछो. मोदी जी कों आये तो अभी तीन महीने ही हुए है. फिर भी उन्होंने वो किया जो दस सालों में तुम्हारी चुनी हुई सरकार नहीं कर पायी.
और तो और जब घाटी में सारे नियम क़ानून ताक पर रखकर अंधाधुन्द निर्माण हुआ तब आप क्यों तमाशा देखते रहे? आपने क्यों नहीं मुलभुत सुविधाओं के निर्माण के लिए अपने आवाज़ बुलंद कि?
हाँ, एक बात ज़रूर सरकार कों (चुनाव आयोग से सिफारिश कर ) करनी चाहिए थी कि ‘उप-चुनावोंको’ कुछ समय बाद कराया जाता तो अच्छा होता.
इस बीच देश के कई हिस्सों में बदलते ‘मौसम’ का मिजाज़ पता चला और ‘पर्यावरण’ में होते बदलावों का भी एहसास हुआ. कहीं भयंकर गर्मी रही, तो कहीं बाढ़ और कहीं एकदम सूखा.
इससे हम को सबक लेकर अभी से चेतने कि जरूरत हैं.
और जो मैं इससे पहले भी कहता आया हूँ कि ‘हमारे बाप का कुछ गया हो या नहीं’ मगर ‘हमारे बच्चों का और आनेवाली पीढ़ियों’ का बहुत कुछ ‘दांव’ पर है…
इस दौरान मैंने यह भी महसूस किया कि पहले तो हम ‘भारत’ और ‘इंडिया’ में बंटे हुए थे, मगर आज ‘ट्विटर’ का भारत अलग है, ‘फेसबुक’ का भारत अलग है, अंग्रेजी और हिंदी समाचार पत्र पढ़ने वालों का अपना भारत है. ‘व्हाट्स-एप’ का भारत इन सबका मिश्रण है और टीवी चेनलों कि प्राथमिकताएं ‘टीआरपी’ और अलग अलग ‘ब्रांडों’ के प्रायोजक है, या फिर ‘क्रिकेट’ है.
‘क्रिकेटरों’ कों हमारे देश में इतना ज्यादा महत्व दिया गया है कि उनके सामने देश पर मर मिटनेवाले शहीदों कों भी इतना सम्मान नहीं दिया जाता.
अपने आप कों ‘न.१’ कहने का दावा करनेवाले समाचार चेनल पर तो क्रिकेट के लिए विशेष समय (आधा घंटा) दिया जाता है. जब देश इतनी समस्याओं से घिरा हो तो क्रिकेट कि बात तो होनी भी नहीं चाहिए, या फिर सभी खेलों कों उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए. क्रिकेट कि हार जीत पर भी न तो ज्यादा हंगामा होना चाहिए और न ही ज्यादा उत्तेजना होनी चाहिए. क्योंकि हर क्रिकेट खेलनेवाले देश का फ़र्ज़ है कि जीत ने के लिए खेलना और खेल का अविभाज्य अंग है ‘हार’ या ‘जीत’ इसीलिए न तो क्रिकेट में एक हार पर दुनिया भर का गम लूटाने कि ज़रूरत है और न ही जीत पर क्रिकेट के खिलाड़ियों कों ज़रूरत से ज्यादा सर पर उठाने कि ज़रूरत है.
और सबसे सुखद रहा दस दिनों तक चला ‘गणेशोत्सव’, ‘बाप्पा’ आते हैं तो अपने साथ कई यादें भी लेकर आते हैं. ‘गणेश उत्सव’ कि वो यादें जो मेरे बचपन से जुडी है. हो सकता है कि आनेवाले दिनों में मैं अपना पहला ‘मराठी’ लेख (जो कि १९८० के बाद आएगा) ‘गणपति-बाप्पा’ कि यादों के साथ ही लिखूं.