जिसकी जहां चल रही है
वो वहीँ लाठी भांज रहा है
‘लाचार’ बेबस देख रहा है
‘अराजक’ राज कर रहा है
गुनाहगार सीनाजोर
छाती ठोक के जी रहा है
कायदा क़ानून ताक पर रख कर
धडल्ले से मौज कर रहा है
बेगुनाह बेक़सूर
सीने पर वार झेल रहा है
मौत पर उसकी,
मातम –
अंदर ही अंदर दम तोड़ रहा है,
रोटी के फेर में
आम जनता उलझ कर
दसों दिशाओं सर पटक रही है
मुट्ठीभर ‘सेवक’ मज़े लेकर
पकवान उड़ा रहे है,
यही लोकतंत्र है
यही समाजवाद है
यही विकास है
यही सुशासन, सुराज और सर्वोदय है
आम आदमी अपने जुगाड में
‘इंसानियत’ से ‘जुदा’ है
इसी पर तो ‘सियासत’ ‘फ़िदा’ है
अंदाज़ जुदा भले हो ‘सियासत’ का
एक ही इसका ‘सौदा’ है,
टुकड़े टुकड़े इंसान
अपनी ही फ़िक्र में उलझा है
कोई किसी के साथ नहीं है
और किसी का ‘हाथ’ किसी के साथ नहीं है
आशाओं के झूठे ‘कमल’
अपनी ही दलदल में हैं,
पास उसके जाएँ तो
‘धंसने’ का का खतरा है
स्वार्थ का गठ जोड़
है ‘मुट्ठीभर’
लेकिन भारी
‘जन सैलाब’ पर
खेल वही पुराने
धर्म-मजहब,
जात-पात और
भेद-भाव् के,
पाँसे वही – मंदिर-मस्जिद
आरक्षण और
भाषा-प्रांत के
यही भारत है
यही सबसे बड़ा जन-तंत्र है
यहाँ आम आदमी कि जिंदगी
एक ‘हादसा’ है,
और उसकी तकदीर
एक ‘मुआवजा’ है…
very very true.. Too good..