पन्नी

मैं एक पन्नी हूँ और भटक रही हूँ यहाँ से वहाँ,

वैसे ही जैसे मेरे ‘प्लास्टिक’ परिवार के बाकी सदस्य,

फ़ैल रहे है  डगर-डगर और भटक रहे हैं नगर-नगर,

सह रहीं हूँ  मैं लोगों कि बेदर्दी जो मुझे देखके मुंह फेर लेते हैं,

कोई आए, उठाये मुझे, और ले जाए मुझे मेरे सही मक़ाम तक,

मुझे भी कोई गले से लगाये और प्यार से पूछे के ‘तेरा हाल क्या है’

मेरे और भी भाई-बहन हैं जो मेरी तरह ही दर दर कि ठोकरें खा रहें हैं,

कल ‘पीवीसी’(PVC)  सुना रहा था अपनी दर्द भरी दास्तान,

क्यूं नहीं बचाते लोग मुझसे अपनी जान,

क्या अपने बच्चों की और भविष्य कि भी चिंता नहीं हैं इंसान को,

जो हमें सहेज कर,  कर दे अलग, और रखे साफ़ अपने घर-परिसर,

कितनी निर्दयता से लोग हमें मिला देते हैं एक दूसरे के साथ,

कभी मैं काँटों में फस जाऊं , कभी किसी पेड़ कि टहनी से लिपट जाऊं,

कभी नालों में बह जाऊं और अटक जाऊं किसी ‘डिब्बे’ या ‘पीपे’ के मुहाने पे,

कभी पानी पे तैरती रहूँ यूँही और बन जाऊं कारण गन्दगी का,

या फिर सडती रहूँ नदी-ताल-तलैया की सतह पर और प्रदूषित कर दूं सब जल,

आज कल तो आप जहां भी देखोगे मुझे हर जगह पर पाओगे ,

खेत-खालिहनोंमें-अपने आसपास के परिसर में, अत्र-तत्र-सर्वत्र- मैं ही मैं हूँ,

यूँही उड़ते-फिरते, गिरते-पड़ते कट रहा हैं सफर – मंजिल की नहीं खबर,

मुझे अपना लो, मुझे चाहो – मुझे समझो, मुझसे प्यार करो,

पहुंचा कर मुझे मेरे ‘मोक्ष’ तक, बचालो अपनी ‘वसुंधरा’ को,

कर रक्षण ‘पर्यावरण’ का, निभाओ ‘फ़र्ज़’ अपने ‘इंसान’ होने का !

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