मैं कहाँ कहाँ घूमा और कितनी राहों से गुज़रा ,
जी करता हैं मैं पतंग बन जाऊं और सारा जहान घूम आऊँ!
कितनी बड़ी है यह दुनिया और है यह सुन्दर धरा,
मैं हर डगर जाऊं और छुं लूँ वहाँ कि मिटटी,
जहां प्यासी है ज़मीन पानी के लिए,मैं ‘घनघोर’ बरस जाऊं,
शहर से दूर बस्ते हैं जो गाँव और जहां नहीं पहुंची है सड़क अभी,
कैसे जीतें है लोग वहाँ इस बात का पता लगाऊं,
जहां मुरझाएं हैं चेहरें और छीन गयी हैं खुशियाँ, वहाँ मैं ‘हरियाली’ ‘खुशहाली’ बन जाऊं!
समस्याओं की कमी नहीं हैं इस जहान में, और हैं कई बेबस और लाचार,
जी करता हैं कि मैं सबकी समस्याओंका समाधान बन जाऊं,
जहां जहां बस्ती है ऐसे इंसानों की बस्ती, मैं हर वोह जगह जाऊं,
उनके सपनोमें खो जाऊं, और उनकी उम्मीदों का दामन थाम लूँ,
मैं उनकी खुशी में झूम लूं और उदास हो जाऊं उनके दुःख में,
मैं सबकी पीडाओं को हर लूं और दारिद्र्य का विष प्राशन करनेवाला नीलकंठ बन जाऊं!
मैं काम आऊँ सदा औरोंके और नहीं बैठूं कभी चैन से,
न बनूँ बोझ कभी किसीपे, मदद करूँ हर जरूरतमंद की,
मैं हर बच्चे की मुस्कान बन जाऊं और सीने से लगा लूँ हर अनाथ को,
मैं चैन –ओ-अमन कि सृष्टि रचनेवाला विश्वकर्मा बन जाऊं,
प्यार करूँ सभी से मैं, रहूँ हमेशा हँसता और जिंदादिल हरदम,
करूँ माफ़ दुश्मन कि गलतियों को भी, और सुख का ‘श्राप’ देनेवाला ‘ऋषि ‘ बन जाऊं!
मैं कहाँ कहाँ घूमा और कितनी राहों से गुज़रा ,
जी करता हैं मैं पतंग बन जाऊं और सारा जहान घूम आऊँ ,
कितने हैं लोग ‘दुखी’ और ‘बेहाल’ इस जहांन में अभी,
मैं उन सबसे मिलूं और सबका हाल जानू ,
इंसानियत की बातें करूँ और आशा कि किरण जगाऊं,
मुझे इतना बड़ा बना दे हे इश्वर, की सबको अपनी बाँहों में समेट लूँ और साथ ले चलूँ सबको ,
मैं सबकी चिंताएं मिटानेवाली चिता बन जाऊं और पंचतत्व में विलीन हो जाऊं!
( मेरे स्वर्गवासी पूज्य ‘बाबा’ (पिताजी) जिनका दिनांक ०९.०१.२०११ को देहावसान हुआ, को समर्पित )
इस कविता का भाग-२ यहाँ पर पढ़ें