आसमान के सीने को चीरता हुआ
यह धुंआ उसके फेफड़ों को तड़पा रहा हैं
दम इंसान का घुट रहा हैं
हमारी बढती बेचैनी और
घबराहट कि वजह यही तो नहीं
धरती कि धमनियों मे
मिला दिया किसने
प्रदूषित जल ये
उसकी रक्त शिराओं से
अब विष के झरने फुट रहे
फिजां कि बाहों में
अनगिनत जहरीलें ‘वायु’
आज घुल रहे
के हवा भी ‘रंग बदलने’ लगी हैं
ऋतू चक्र को किसकी नज़र लग गयी
मौसम भी इंसानों कि तरह हो गया हैं
बारिश में अब ‘बरसात’ नहीं होती
और ‘गर्मी’ के दिन
‘आये दिन’ होते हैं
‘कलंकित’ सारा परिमंडल हैं
शोर चारों तरफ हैं
‘विकास’ कि ‘जद्दोजेहद’ में
‘जिंदगी’ दांव पर हैं
‘मशीनी जिंदगी’ में
‘इंसानी’ ‘कल-पुर्जे’ हैं
‘जिंदा’ लाशों के ‘जंगल’ में
अब ‘कुदरत ‘ भी ‘दम ‘ तोड़ रही हैं
देख के ‘इंसान’ कि ‘फितरत’ को
अब ‘मौसम’ बदल रहा हैं
‘मौसम’ अब ‘बदल’ गया है
और
‘आबोहवा’ बदल गयी हैं