कूड़ा-करकट
(हमारे समाज का आईना)
कूड़ा करकट में हम बात करतें हैं हमारे समाज में सार्वजनिक जीवन में हमारे आचरण, विचरण, व्यव्हार और शिष्टाचार की. हमारी ‘नागारिकीय संवेदनशीलता’ (सिविक-सेन्स) की !
हमारी रोज़मर्रा कि जिंदगी में ‘ट्राफिक –जाम’ कोई नयी बात नहीं है.
कई बड़े शहरों में, या फिर छोटे शहरों मे, या ऐसी जगहों पर जहां उद्योग फैल रहें हैं, कुछ विकास हो रहा है, शहरीकरण बढ़ रहा हैं और आबादी बढ़ रही रही है, ऐसे सभी जगहों पर यातायात कि समस्या भी बढती जाती हैं. एवं मुलभुत सुविधाओं के विकास के अभाव में और प्रशासनिक अदूरदर्शिता के कारण भी कई समस्याएं पैदा होती हैं.
‘ट्राफिक-जाम’ भी एक ऐसी ही समस्या हैं, जो उपरोक्त कारणों कि वजह से तो हैं ही, लेकिन हमारी अनुशासनहीनता और सामाजिक असंवेदनशीलता इसको और भी बढाती है और बड़ा कर देती है.
आज कल कि अति-व्यस्तता वाली जीवन शैली में हर कोई जल्दी में रहता है और हर किसीको किसी भी कीमत पर अपना काम निकालना होता है, केवल अपने काम से मतलब होता है. ऐसे में कोई किसी के लिए न रुकता है न किसी कि परवाह करता है.
उदाहरण के तौर पर, किसी ‘रेलवे-क्रोस्सिंग’ के फाटक लगने वाले ‘जाम’ कों लेते हैं.
रेल के गुजार जाने के बाद जब फाटक खुलता है तो एकाएक सभी अपनी गाड़ियों इस कदर आगे बढ़ाते हैं कि दोनों तरफ से ‘वन वे’ ट्राफिक हो जाता है. दोनों तरफ से गाडियां आमने सामने आ जाती है. कोई किसी दूसरे कों रास्ता नहीं देता, दसों दिशाओं से ‘होर्न’ कि आवाजें गूंजने लग जाती है और इतनी कर्कश कि आपके कान फट जाएँ.
‘ट्राफिक-जाम’ या यातायात में रुकावट, उसमे अनुशासनहीनता, उसके कारण होनेवाले झगडें, यहाँ तक कि ऐसे झगडों में किसीकी जान पे बन आना, हमारे लिए कोई नयी बात नहीं हैं.
हमारे आस पास, रोजमर्रा कि जिंदगी में ऐसी कई घटनाएं होती रहती हैं, जिस से के हम ये सोचने पर मजबूर हो जाएँ कि ‘आखिर कब हम संवेदनशील बनेंगे कब हम एक दूसरे कि तकलीफ समझ कर सामंजस्य बिठाएंगे और सबके लिए बेहतर हो ऐसी व्यवस्था कायम कर पाएंगे.
दूसरी बात ये भी है कि हमारे देश में अनुशासन में रहना या नियमों का पालन करना अपनी तौहीन माना जाता है. इसलिए समस्याएँ कुछ ज्यादा है. कई लोग सड़क कों राष्ट्र कि संपत्ति समझने के बजाय खुद कि जागीर समझते हैं और दूसरों के लिए समस्याएँ पैदा करतें हैं.
और भी ऐसे कई उदहारण हमें अपनी रोज़मर्रा कि जिंदगी में देखने को मिलते हैं जिससे हम इस नतीजे पर आसानी से पहुँच सकते हैं कि ‘ अभी हमें ठीक से सड़क पर चलना भी नहीं आता है तथा यातायात के नियम और सड़क अनुशासन से हम लोग कोसों दूर हैं..
जैसे कि मार्केट में घुमते समय कई लोग अभी भी छोटे छोटे बच्चों को दायें हाथ कि ओर से ले कर चलते हैं जबकि उन्हें बाएं हाथ पर रखना चाहिए, क्योंकि छोटे बच्चे उछलते-कूदते रहतें हैं और कभी कभी हाथ छोड़कर बीच सड़क पर आ जाते हैं..
अभी भी लोग बसों में सफर करते समय दाहिने बाजू कि खिडकी से अपना सर बाहर निकालते हैं- और अपने साथ अगर छोटे बच्चे हैं, और वे ऐसा करतें हैं तो न तो उनका ध्यान रखते हैं और न ही उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं…
और इस तरह का हमारा जीवन जीने का ढंग हैं तो हम क्या सही ढंग के ‘जन-प्रतिनिधि’ चुन पाते है? क्या हम उतनी ही गंभीरता से सामाजिक मुद्दों के प्रति सजग रहते हैं?
यह सब बातें ये सोचने पर मजबूर करती हैं आज़ादी के ६५ साल बाद भी आज अगर हम इन समस्याओं से जूझते हैं तो कमी कहाँ पर हैं.
और प्रशासन कों कोसने के बजाये ये भी समझना होगा कि हम लोगों का – ‘जनता’ का- भी राष्ट्र निर्माण में कोई योगदान होना चाहिए के नहीं?