एक जूनून – एक जज़्बे कि तलाश में हैं देश!

देश कल ६८ वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है !
हम सब के लिए एक पावन दिन और उत्सव मनाने का दिन.
साथ ही साथ इन ६८ वर्षों में हमने क्या पाया इसका मंथन भी इस दिन हमें कर लेना चाहिए. देश कों मजबूत बनाने के लिए हमने क्या रास्ता अपनाया और विविधता में एकता साधने के प्रयास में हम कितने सफल हुए इसका भी आकलन करना चाहिए.
अपने समाज कों एकात्म बनाने के लिए हमने क्या प्रयास किये और आगे भी इसे बरकरार रखें के लिए, इसमें एक नया जोश और एक नयी उमंग भरने के लिए हम सबको साथ मिलकर काम करने कि ज़रूरत अब पहले ज्यादा है. क्योंकि देश के दुश्मन फिराक में है कि कब इसको तबाह किया जाए. इसमें देश कों अंदर से खोखला करनेवाले अपराधी-असामाजिक तत्व भी देश के दुश्मन ही है.
ऐसे में १२० करोड कि जनता महज़ एक भीड़ के रूप में नज़र आये ये हम लोगों के लिए सबसे बड़ी शर्म कि बात है.

हमारे देश में भीड़ कि कोई कमी नहीं है. चारों तरफ, जिधर देखो, भीड़ ही भीड़ है.
कुछ दिन पहले, भीड़ द्वारा एक चोर कों पिट-पिट कर मार देने कि घटना हुई. हमारे देश में समय समय पर ऐसी घटना होती रहती है और खबरें आती रहती है.
भीड़ चाहे तो कुछ भी कर सकती है. हमारे देश में जैसे लोक तंत्र या प्रजा तंत्र, ‘घूस-तंत्र’, ‘परिवार-वादी-सत्ता-तंत्र’ या और भी कई ‘यन्त्र-तंत्र’ काम करते हैं, उसी प्रकार से ‘भीड़ तंत्र’ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका समय समय पर सामने आती है, और भीड़ अपनी तरीके से कई मामलों में फैसले करती रहती हैं.
लेकिन ज्यादातर गंभीर मामलों में या समाज से सरोकार रखने वाले मामलों में भीड़ खामोश रहती है और जब-जब हमें लगता है कि अब तो ‘जनता ‘ जरूरू कुछ करेगी या एक ‘जन-सैलाब’ जैसे उमड़ेगा या फिर वह निर्णायक घडी अब आ गयी है – अब ‘क्रांति’ होनेवाली है, तब-तब ऐसा नही होता है, और मेरे वतन कि १२० करोड की भीड़ का तब पता ही नही चलता है, तब उसके ‘अस्तित्व’ का एहसास ही नहीं होता है. यह एक बहुत ही गंभीर विषय है और इस पर चर्चा ज़रूरी है. जिन मुद्दों पर हम सबको मिलकर लड़ने कि ज़रूरत है, वो मुद्दे तय होने चाहिए और उनको लागू करने के लिए समाज हित युद्ध स्तर पर काम होना चाहिए.

हमारे देश में भीड़ चाहे तो बहुत ही छोटी से छोटी बात पर ‘इंसान’ की जान तक ले सकती है, पर गंभीर से गंभीर मुद्दों पर चुप्पी साधे खामोश भी रह सकती है और कभी कभी तो ऐसे भी लगने लगता है कि हमारे शरीर में खून बहता भी है या नहीं?
क्योंकि जब उसे उबलना चाहिए या यूँ कहे कि खौलना चाहिए तो वैसा होता नहीं है.

भीड़ चाहे तो मामूली चोरी या छोटे से छोटा जुर्म करनेवाले आदमी को , या ‘बटुआ’ उडाकर भागते हुए चोर को पकड़कर पीट पीट मार सकती है, साईकिल चोर को पकड़कर पिट पिट कर अधमरा तक कर देती है, पर यही भीड़ ‘नाकारा’ और ‘नालायक’ राजनेताओं को कुर्सी से उतार नहीं सकती.
यहाँ तक कि पुलिस भी एक छोटे बदमाश कों तो सड़क पर घुमा घुमा कर पिटती है लेकिन बलात्कारियों कों ‘मुंह’ ढांक कर बहुत ही सुरक्षा के साथ चुपके से ले जाती है, और पीड़ित जनता हाथ पे हाथ रखकर अपनी बर्बादी का तमाशा लाचारी से देखती रहती है.

‘भीड़’ बच्चों पर जुल्म ढाने वालों को भी बक्श देती है. ईमानदार अफसरों को जिन्दा जलानेवालों के खिलाफ, भ्रष्ट अफसरों या नौकरशाहों के खिलाफ भीड़ की आवाज़ दब जाती है.
देश लुटता रहता है तो भीड़ की परछाई भी नज़र नहीं आती.

हमारा देश, हमारा समाज , हमारी संस्कृति पर धब्बा लगाने वाली कई घटनाएं हर रोज होती रहती है, पर भीड़ खामोश रहती है.
जिस देश में देवी की पूजा होती हैं वहीँ हर रोज बलात्कार की कई वारदातें होती है, यहाँ तक कि नारी के टुकड़े टुकड़े कर मार दिया जाता है, उसे सरे बाज़ार नंगा कर घुमाया जाता है, भीड़ खामोश रहती है,
बड़ी बड़ी डकैती होती है, लोगों को गाडियों के निचे कुचला जाता हैं, निरपराध बालकों को बलि चढ़ाया जाता हैं, भीड़ सुस्त रहती है,
इस भीड़ का जोश तो तभी कुलांचे मारता है जब कोई साईकिल चोर पकड़ में आये या फिर कोई कमजोर पकड़ में आये, नहीं तो सरेआम होते जुर्म को देखने वाले तमाशबीन हमारे यहाँ कम नहीं है.

पिछली कई घटनाओंको लीजिए, ऐसे कई उदहारण दिन प्रतिदिन हमारे यहाँ हैं.

‘गैर जरुरी’ और ‘विध्वंसक’ मामलों में भीड़ अपनी भूमिका जरुर निभाती हैं, बजाय इसके कि कोई रचनात्मक कार्यों में या कोई सकारात्मक गतिविधि में ‘मानव-उर्जा’ का उपयोग किया जाये.
जब चुनाव आतें हैं तो भीड़ घरों में सिमट कर रह जाती है, (अभी हाल के चुनावों में ज़रूर मतदान के प्रतिशत में वृद्धि हुई जो एक अच्छा संकेत है, लेकिन अभी भी एक जूनून कि कमी हैं ).

ये जूनून ज़रूरी है. देश में एक सामाजिक क्रान्ति जगाने के लिए ‘जूनून’ बहुत ज़रूरी है.

अभी हाल ही ऑस्ट्रेलिया में हुई एक घटना जिसमे कि रेल और प्लेटफोर्म के बीच फंसे एक व्यक्ति कों सब लोगों ने मिलकर बचाया यह बताने के लिए काफी है कि हम कहाँ हैं ! वहाँ का समाज कितना जिंदादिल हैं और हम कितने मुर्दादिल !
हमारे यहाँ दिल्ली में या फिर लगभग हर जगह मानवीय असंवेदनशीलता कि पराकाष्ठा कि कई घटनाएं है. जिनेह पढकर-सुनकर हमारा सर शर्म से झुक जाता है.

हम आपसी सद्भाव कों भूल गए है. सामाजिक सरोकार से कट चुके है. विकास कों हमने केवल भौतिक सुखों से जोड़ लिया है. संस्कृति, सभ्यता, समाज इन सबसे हमने किनारा कर लिया है, नहीं तो आये दिन बच्चियों पर हो रहे अत्याचारों कों देश यूं मूक-दर्शक बन कर न देखता रहता.
हमें तय करना चाहिए कि किस तरह का समाज, किस स्तर का जीवन हम जीना चाहते हैं.
हमारा जीवन स्तर क्या होना चाहिए, हमारे जीवन जीने का ‘गुणवत्ता स्तर’ क्या हो ?
पिछले दिनों देश हुई कई घटनाओं कों लीजिए और उनके गाम्भीर्य कों घटाती व्यवस्था कों देखेयी, ‘सामाजिक संवेदनहीनता’, ‘ मानवीय संवेदनशीलता’ कों भूलता, और एक ‘निष्क्रिय नपुंसकता’ कि तरफ बढ़ता हमारा देश साफ़ नज़र आएगा.

हमें तय करना चाहिए कि हम हमारी बर्दाश्त करने कि हद कहाँ तक होगी? हम कितना अत्याचार सहते रहेंगे और कब तक राजनेताओं के जाल में फंसकर आपस में लड़ते रहेंगे? नैतिक मूल्यों के प्रति, सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रति हमारे कर्तव्य क्या हैं? कब तक हम घिसे-पिटे तरीके अपनाकर अपने आप कों बर्बादी कि गर्त में ले जाते रहेंगे? कब तक हम नाकारा व्यवस्था कों अपनी मन-मानी करने देते रहेंगे?

कब हम ‘जागरूक’ नागरिक’ अपनी ‘कुम्भकर्णी’ निद्रा से जागेंगे?
कब हम एक ‘तमाशा’ देखनेवाली भीड़ कि जगह एक ‘राष्ट्र’ कहलाने लायक बनेंगे?

One Reply to “एक जूनून – एक जज़्बे कि तलाश में हैं देश!”

  1. Amazing blog on Rastriya Chetna..I could not find a suitable word in English for chetna..Awareness doesn’t reach there. All the best to the blogmaster.

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