पेंच उलझते जा रहे थे
मुश्किलें बढती जा रही थी
बर्दाश्तगी छटपटाने लगी थी
सांस घुंटने लगी थी
लगता था जैसे हर मोड पर
साज़िश शतरंज बिछाये है,
मैं दांव चल नहीं रहा था
और वो जीत कि ग़लतफहमी में थे
मैं गिरती इंसानियत देख रहा था
वो गुलाम कि अकड पर हैरान थे,
हाँ, आखिर, थे तो हम गुलाम ही ,
मैं मुट्ठी भर भर हिम्मत जुटा रहा था
सपने तिनका तिनका फिसल रहे थे
मैं परबत परबत हौसला जुटाने लगा
सपनों के महल डगमगाने लगे
मायूसी रोज़मर्रा हो गयी
बार बार जो वो मेरे वजूद कों ठुकराने लगे
लेकिन, यही वक्त था कि,
मैंने सीने में हौसला भर लिया
और ‘बगावत’ कर ली
उनकी मालिकियत ठुकरा के
अपनी जिंदगी, अपने नाम कर ली