समस्याएं कितनी हैं
कहना चाहता हूँ,
इंसानियत किस हद तक गिरी हैं
बताना चाहता हूँ,
अपने चारों ओर देखो तो –
रोज़मर्रा के झगडे कितने हैं,
हिंसा कितनी बढ़ी हैं,
अपहरण, लूट और डकैती
हर रोज का नियम हैं,
‘भ्रष्टाचार’ अब ‘शिष्टाचार’ ही नहीं,
हमारा ‘चरित्र’ बन गया हैं,
‘बलात्कार’ अब हमको ‘झिंझोड़ता’ नहीं हैं,
वो तो बस एक ‘खबर’ होती हैं,
अभी कानून कितना लचर हैं,
समाज कितना अनुशासनहिन् हैं,
‘सरकार’ कितनी ‘लोला-पोला’ हैं,
आम आदमी क्यों पीस रहा हैं,
‘राजनीती’ कितनी ‘स्वार्थी’ हैं,
प्रकृति क्यों नाराज़ हैं,
‘दोहन’ की क्या कोई ‘सीमा’ हैं?
भगवान क्यों ‘रूठे’ हुए हैं?
देश के ‘नौनिहाल’
क्यों हैं ‘बेबस’ और ‘बदहाल’,
पीडाओं को बयान करना चाहता हूँ,
मैं शब्दों को ढूंढ रहा हूँ,
इमानदारी ने पूछा,
इंसानियत ने आवाज़ लगाई,
ज़मीर ने पुकारा,
दोस्तों ने कहा
कलम क्यों खामोश हैं,
कुछ बोलते नहीं,
आवाज़ क्यों नहीं उठाते,
क्यों बर्दाश्त कर रहे हो सब,
क्या ‘अलफ़ाज़’ नहीं मिल रहे,
क्यों लिखते नहीं?
ख़ामोशी मेरी भी
तड़प रही है,
और,
मैं शब्दों को ढूंढ रहा हूँ,
ताकि अपनी भावनाओं को,
जन जन तक पहुंचा सकूँ,
या फिर अपने सवालों का
जवाब मांग सकूँ
वे जिनके पास हैं –
सत्ता और साज़-ओ-सामान –
इन समस्याओं को सुलझाने के,
या करूँ यलगार के –
जाग जाएँ मुल्क के रहनुमा अब,
‘ख़ामोशी’ का ‘लावा’ उबल रहा है….