मन में उमड़ रहा
‘घोटालों’ का ‘गुबार’ हैं
आओ यारों गाएं हम
खुशी के गीत
झूमे गाकर अपना राग,
अपनी लय, अपनी ताल,
और अपना संगीत,
देश भी अपना
माल भी अपना
अपनी ही सरकार
अरे मौज उडाओं यारों
किस चीज़ कि है दरकार,
‘म न रे गा ‘ तू भ्रष्टाचार के गीत,
‘छेड़’ घपलों कि ‘तान’ तू
कभी होना न विचलित
‘शहरीकरण’ के इस दौर में,
क्यों रहे ‘स्वास्थ्य’ भी ‘ग्रामीण’
लूट तरंगे ‘टू-जी’ की तू
और बन जा ‘रंगीन’
काला रंग क्यों तुझे
अरे नहीं हैं भाता,
‘काला’ ‘कोयला’ ही तो हैं
सुख-समृद्धि लाता,
हैरान हैं ‘पशु-प्राणी’ बेचारे
क्यों ‘चारा’ खा गए ‘नेता’
‘खेल’ निराले, ‘ढंग’ निराले,
हैं ‘गेहूं-चावल’ में भी ‘घोटालें’
‘अंतरिक्ष’ और ‘देव-आवास’ (या अन्त्रिक्स-देवास?)
में भी हमारे ही चर्चें हैं
हमारी ‘कामन-वेल्थ’ पे तो
‘कुबेर’ भंडारी कि भी नज़रें हैं,
‘आदर्श’ हमारे घोटालें हैं
या ‘घोटालों के हम ‘आदर्श’ हैं ?
?
इस ‘प्रश्न-चिन्ह’ के साथ आपको
छोडना नहीं चाहते,
पर चाहकर भी ‘इतनी जल्दी’
किसी ‘कन्क्लूजन’ पे,
हम पहुंचना नहीं चाहते,
हेलिकॉप्टर आया
हेलिकॉप्टर आया
ऊंची उड़ान वाला
हेलिकॉप्टर आया
‘नोट’ बरसाया,
धुल उडाया,
‘कमीशन’ कि ‘खुशबू’ फैलाया
सात समंदर पार लहराया,
नव-वर्ष कि शुभ-शकुनी बेला पर
देख यह नव-प्रभात आया
‘घोटालों’ का ‘नव-युग’ आया !
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