कूड़ा – करकट (हमारे समाज का आइना)

सार्वजनिक जीवन में हम भारतीय कितने भावना शुन्य है इसका उदहारण दिन प्रति दिन हमारे समाज में होनेवाली घटनाओंसे लगाया जा सकता है. वैसे तो कहने को यह सारी बातें छोटी छोटी बातें हैं, पर कहीं न कहीं जाकर ये हमारा चरित्र बनाती हैं या यूं कहिये की बिगाड़ती है और इन्ही बातों से हमारे राष्ट्र –हमारी सभ्यता की भी पहचान होती है.
सार्वजनिक सुविधाओं को ज्यादा से ज्यादा खराब करना, उनका दुरुपयोग करना यह तो हमारे लिए आम बात है ही, ऊपर से फिर हर चीज़ के लिए प्रशासन को दोष देकर उसे कोसते रहते हैं .
शिष्टाचार या सभ्यता की बातें करें तो अभी कुछ उदहारण मैं यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ, ये किस्से हमें सोचने पर मजबूर करते हैं की आखिर हमने कौनसा विकास किया है, कितनी प्रगति की है, और हम जा कहाँ रहे हैं? इंसानियत और सभ्यता का कैसा मापदण्ड हम स्थापित करना चाहते हैं,
‘एस टी बस में सफर करते हुए अक्सर मैं खिडकी के पास बैठना पसंद करता हूँ की जिससे हवा का आनंद भी लिया जाये और निसर्ग की सुंदरता का भी निरिक्षण किया जा सके. लेकिन सोचिये के आप आनंद यात्रा का लुत्फ़ उठा रहे हैं, और अचानक आपके चेहरे पर ‘थूक’ के छीटे आ जाये? या कोई ‘पान’ चबाकर खिडकी से ‘पान’ की पीक दे मारे और तेज चलनेवाली , बदन को सुकून देनेवाली सुहानी हवा उसे आपके कपड़ो के साथ साथ चेहरे पर भी बिखेरती हुए जाये तो?, या फिर सामने की सीट पर बैठा हुआ मुसाफिर बिना सोचे समझे चलती गाडी में बहार झांक कर उलटी कर दे और वह सब हवा के झोंके के साथ आपके ऊपर आ जाये तो?
तो?, तो समझ लीजिए के यही ‘भारत’ हैं, और आज़ादी के ६५ सालों में हमने यही विकास किया है,
कि हम जन-भावना का भी ख्याल नही रखते. हमारे व्यवहार, हमारे आचरण से दूसरे को क्या तकलीफ हो सकती है इससे हमें कोई फरक नही पड़ता. ‘नागरिक-भावना’ या कहिये कि ‘सिविक-सेन्स’ अभी पर्याप्त रूप से विकसित नही हुआ है.